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अष्टावक्र और राजा जनक

 अष्टावक्र और राजा जनक एक बार राजा जनक ने ऋषियों-मुनियों-महात्माओं की सभा बुलाई थी। उनका सवाल यह था कि कोई मुझे ज्ञान दे, इतनी देर में, जितनी देर में घोड़े की एक रकाब में पाँव डाल कर दूसरी रकाब में पाँव डाला जाता है। अब सब हैरान। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि गुरु के लिए जो आसन बिछा हुआ था, उसे ग्रहण कर ले, हालाँकि राजा की तरफ से हज़ार गउएँ और इतनी ही स्वर्ण मुद्राएँ इनाम मुकर्रर था। महर्षि अष्टावक्र, जिनके शरीर में आठ बल पड़ते थे और इसीलिए अष्टावक्र कहलाते थे, मगर वे अनुभवी महापुरुष थे, उस सभा में आए और आते ही गुरु के आसन पर बैठ गए। आलम (विद्वान) और आमिल (अनुभवी) में बड़ा फर्क है। वह (अनुभवी) करके दिखा देता है, उसका रोज़ का काम है। जब अष्टावक्र सभा में आए, तो उनके टेढ़े-मेढ़े शरीर को देखकर सारे सभासद् हँस पड़े। वे क्यों हँसे? क्योंकि उनके मन में अहंकार था कि हम विद्वान, तत्वज्ञानी यहाँ बैठे हैं, हमारी सभा में यह कुबड़ा कहाँ से आन धमका ! ये लोग (महात्मा) बड़े लाधड़क होते हैं। महर्षि अष्टावक्र ने राजा से पूछा, "राजन! तुम ज्ञान पाना चाहते हो, तो यह चमारों की सभा क्यों बुला रखी है,...