सन्तों की शिक्षा

 सन्तों की शिक्षा


पिछले बासठ वर्षों से मुझे तीन परम सन्तों के चरणों में बैठकर उनकी अनुभवपूर्ण शिक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वास्तव में उनकी शिक्षा ही उनके जीवन का प्रमुख अंग है जिसका उल्लेख किये बिना यह पुस्तक अधूरी ही रहेगी। इसलिये उनकी शिक्षा के सार को यहाँ संक्षेप में दे रहा हूँ।


सन्त सुनी सुनाई या पढ़ी-पढ़ाई बात नहीं करते। जो कुछ उन्होंने स्वयं देखा है, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव किया है वही प्रकट करते हैं। जैसा कि दादू साहिब कहते हैं: 'दादू देखा अदीदा, सब कोई कहत सुनीदा ॥" कि लोग तो सुनी-सुनाई बात करते हैं परन्तु मैंने तो परमात्मा को प्रत्यक्ष देखा है और देखकर कह रहा हूँ।


सन्त चाहे किसी भी जाति, देश अथवा समय में क्यों न आए हों, सबका एक ही उपदेश है। वे कोई नयी जाति बनाने या किसी नए धर्म की स्थापना करने नहीं आते। वे हमें जन्म मरण के बन्धनों से, मोह-माया के जाल और चौरासी के भयानक कारागृह से छुड़ाकर परमपिता परमात्मा से मिलाने के लिये आते हैं। लेकिन ऐसे महात्माओं के जाने के बाद हम बहिर्मुखी हो जाते हैं, शरीअत या कर्मकाण्ड में उलझ जाते हैं और सन्तों की असली शिक्षा को भूल जाते हैं। उनके निर्मल रूहानी उपदेश को हम जाति, धर्म और देश की संकीर्ण सीमाओं में बन्द करके आपसी विवाद और झगड़े पैदा कर लेते हैं।


सन्त कहते हैं कि जिस धर्म, जाति, समाज अथवा देश में हम पैदा हुए हैं, उसी में अपना गुजारा करें। मज़हब बदलने से ख़ुदा नहीं मिलता। ये जाति और धर्म मनुष्य के द्वारा निर्मित हैं, परमात्मा के बनाए हुए नहीं। परमात्मा के मिलाप के लिये न हमें धर्म-परिवर्तन की ज़रूरत है, न किसी बाहरी भेष को अपनाने की; न सिर मुंड़ाने की ज़रूरत है, न लम्बे केश रखने की; न गेरूए पहनने की आवश्यकता है, न नीले या पीले वस्त्र धारण करनेकी। परमात्मा की प्राप्ति के लिये हमें न तो घर-बार छोडकर साधू बनना है, न न ही उसकी तलाश में हमें गुफाओं व कन्दराओं, पहाड़ों व उजाड़ों में भटकना है। परमात्मा हमारे शरीर के अन्दर है, बाहर नहीं। जिसे भी मिला है, अपने अन्दर मिला है और जिसे भी मिलेगा अपने अन्दर ही मिलेगा।


हमारा शरीर वह सच्चा 'हरि मन्दिर' है जहाँ वह मालिक निवास करता है। सभी सन्तों का यही कथन है। गुरु अमर दास का कथन है; 'हर मंदर एह सरीर है'' दादू साहिब भी कहते हैं कि लोग मालिक की तलाश में बाहर भटक रहे हैं, परन्तु वह हमारे घट के अन्दर है:


(दादू) कोई दौड़े द्वारिका, कोई कासी जाहिं। 

कोई मथुरा कौं चलै, साहिब घट ही माहिं ॥'


बुल्लेशाह कहते हैं कि वह परमात्मा हमसे भिन्न नहीं है: 'बुल्ला शौह असां तो वख नहीं।' तुलसी साहिब फ़रमाते हैं कि बड़े अफ़सोस की बात है, मनुष्य बाहर नकली मन्दिरों, मसजिदों में जाकर परमात्मा की तलाश करता है, जब कि उस मालिक का निवास मनुष्य के शरीररूपी कुदरती मसजिद में है। हज़रत ईसा ने ख़ुदा की बादशाहत को हमारे अन्दर बताया है और गुरु अमरदास जी का कथन है कि हमारे शरीररूपी गुफा में अखुट भण्डार है और इसी में वह अलख और अपार परमात्मा निवास करता है। कबीर साहिब ने तो स्पष्ट कहा है:


तुर्क मसीते हिन्दू देहरे, आप आप को धाय। 

अलख पुरुष घट भीतरे, ता का द्वार न पाये ॥


परमात्मा का मिलाप केवल मनुष्य जन्म में ही सम्भव है। बाक़ी किसी भी योनि को परमात्मा से मिलाप करने की योग्यता नहीं है। देवी-देवता भी मनुष्य जन्म के लिये तरसते हैं। चौरासी के चक्कर के बाद मनुष्य-जन्म बड़े भाग्य से मिलता है। यह परमात्मा की प्राप्ति का अमूल्य अवसर है।


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